गुरुवार, 1 अगस्त 2019

परियां होती हैं विश्वसनीय सपनों में





















विज्ञान नहीं बता सकता कभी कि परियां होती हैं या नहीं,
परियां होती हैं विश्वसनीय सपनों में,
बिना किसी अनुसन्धान के,
वे खेलने आ जाती हैं उन बच्चों के साथ,
उन बड़ों के साथ,
जिनकी सोच शतरंज की बिसात पर नहीं होती,
नहीं चलते जो रहस्यात्मक चाल,
बस जिनके अंदर होता है हमेशा,
एक विस्तृत हरा भरा मैदान,
जिनकी हथेलियों में होता है,
कुछ जादू सा कर दिखाने का हौसला,
जिनके एक इशारे पर,
परियां आ जाती हैं जादुई छड़ी लेकर,
कभी सब्ज़ परी,
तो कभी लाल परी बनकर ।
व्यवहारिक होकर,
तुम परियों तक नहीं पहुँच सकते,
ना ही बच्चों की आंखों में
ख्वाब भर सकते हो ।
किसी दिन,
किसी पल के लिए,
तुम अगर सांता नहीं बनते,
परियों की जीती जागती दुनिया नहीं बसा सकते,
तो तुम्हारे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से,
बच्चे कभी जुड़कर भी नहीं जुड़ेंगे,
तितलियों संग उड़ना नहीं सीखेंगे ...

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

आमीन



बच्चे की नींद
उसकी करवटों में,
उसकी कुनमुनाहट में,
उसके सुबक कर रोने में
एक माँ सिर्फ लोरी नहीं बनती,
हो जाती है सम्पूर्ण भागवत गीता ।
समय जो अनुभव देता है,
उसे नजरबट्टू की तरह
उसके रोम रोम से बांध देती है,
ताकि जो आँसू वजह-बेवजह
माँ की आँखों से बहे हैं,
वह भूले से भी बच्चे की आँखों में ना उतरें ...
पर,
जैसे जैसे वह चलना सीखता है,
माँ मन ही मन कहती है,
मैं हूँ तुम्हारे साथ,
लेकिन मेरी ऊँगली छोड़कर,
तुम्हें चलना होगा,
ताकि तुम कभी कहीं गिरो
क्योंकि,
बिना गिरे तुम उठना कैसे सीख पाओगे,
चोट नहीं लगी,
तो दूसरों का दर्द कैसे जानोगे !
जब तक मार्ग अवरुद्ध नहीं होंगे,
तब तक तुम अपने बल पर
कोई भी रास्ता नहीं ढूंढ पाओगे ।
इसलिए, आगे बढ़ो
मेरी दुआओं का कवच,
हमेशा तुम्हारे साथ
तुम्हारा हौसला बनेगा,
मैं कहीं भी रहूँ,
रहूँ या ना रहूँ
मैं हूँ तुम्हारे पास
- यह गहरा विश्वास
तुम्हें हमेशा विजयी बनाये ।
आमीन

गुरुवार, 28 मार्च 2019

सही कहा न ?



जब आदमी बहुत अकेला पड़ जाता है, किसी जंगल में, सुनसान रास्ते में फंस जाता है तब वह चाहता है कोई मिल जाए, कुछ कहकर मन को हल्का कर ले, रास्ते ढूंढ ले, सहयात्री बन रास्ता पार कर ले । अचानक किसी आहट पर मुड़ता है, मुस्कुराकर आगे बढ़ता है, वह आदमी बिना नज़र डाले आगे बढ़ जाता है । जंगल में बैठ जाता है, कोई मिले तो रास्ता ढूंढा जाए । समय गुजरता है, कोई व्यक्ति नहीं मिलता ।
फिर एक दिन ज्ञात होता है कि हम अकेले तो कभी थे ही नहीं, हमारी आत्मा कहने-सुनने को निरन्तर साथ थी, रास्ते किसी के बल पर नहीं ढूंढे जा सकते, खुद पर भरोसा करके बढ़ना होता है, कोलम्बस,वास्कोडिगामा कोई किसी के सहारे नहीं बनता । सहयात्री आत्मा के साथ हमारा पूरा शरीर होता है, बस बढ़ने की देरी है और आत्मविश्वास की ।
खुद पर विश्वास न हो तो किसी और पर कैसा विश्वास ?! सही कहा न ?