गुरुवार, 23 नवंबर 2017

सुनो कुनू अमु सुनो




कुनू कुनू अमु अमु
तुम हो मेरी जान
मैं तुमपे कुर्बान ...
तितली सी जब उड़ती हो
मैं भी बन जाती हूँ तितली
जंगल के राजा को पकड़ के
देखो लाती है नानी दादी
हाथी कहता है
कहाँ है कुनू
बोलो कहाँ है अमु
बिठाओ उनको मेरी पीठ पे
सैर कराऊँ
उनकी शान बढाऊँ
इनदोनों परियों को खूब घुमाउँ  ...
चालाक लोमड़ी
भागके छुप जाती है
समझ गई है
कुनू अमु के आगे
नहीं चलेगी उसकी चालाकी
कोयल सुनाती है मीठे मीठे गीत
कहती है ये दोनों मेरी सहेली !
तुमदोनों जब मुझसे लिपट लिपटकर
मुझको बुलाती हो
मेरी आँखें
खुशी के मारे
ध्रुवतारा बन जाती हैं
ओ मेरी कुनू
ओ मेरी अमु
तुझपे कुर्बान
है मेरी जान :)

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

कुनू जुनू - ब्रह्ममुहूर्त से रिश्ता कायम करना





प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

शशि-किरणों से उतर-उतरकर,
भू पर कामरूप नभ-चर,
चूम नवल कलियों का मृदु-मुख,
सिखा रहे थे मुसकाना।

स्नेह-हीन तारों के दीपक,
श्वास-शून्य थे तरु के पात,
विचर रहे थे स्वप्न अवनि में
तम ने था मंडप ताना।
कूक उठी सहसा तरु-वासिनि!
गा तू स्वागत का गाना,
किसने तुझको अंतर्यामिनि!
बतलाया उसका आना!  ...  

इसे प्रकृति कवि पंत ने लिखा है , और तुम्हारी नानी/दादी का प्रकृति से जुड़ा नाम उन्होंने ही रखा है। (यह तो मैं बता ही चुकी हूँ ) मेरा नाम विशेष है, क्योंकि इसके लिए मेरे पापा ने कहा था - "बेटी, तुम रश्मि ही बनना" 

प्रकृति कवि ने मुझे सूर्य के साथ जोड़ दिया, सूर्य की सारी तपिश को बांटकर एक एक रश्मि धरती के कोने कोने में आह्लादित होती है, सुबह से शाम तक जीवन राग सुनाती है। 

सूर्य रश्मि और एक पक्षी में गजब का संबंध होता है - दोनों ब्रह्ममुहूर्त का प्रथम राग बनते हैं 
सृष्टि सुषुप्तावस्था से उबरती है प्रथम रश्मि और रंगिणी के घोसले से आती चहचहाहट से, मन्त्रों का शंखनाद होता है, अजान के स्वर गूंजते हैं, गुरवाणी मुखरित होती है, बुद्ध की शरण में मन अग्रसर होता है  . 

यह सब कहने, बताने का एक ही लक्ष्य है कि तुमदोनों ब्रह्ममुहूर्त से रिश्ता कायम करना 
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तभी मिलते हैं 
रचनात्मकता उनसे ही मिलती है 
तात्पर्य यह कि जीवन को सीखने के लिए 
रंगिणी बनना 
समय की उपयोगिता समझना 
जब भी कहीं कोई प्रश्न अँधेरा बनकर खड़ा हो 
ब्रह्ममुहूर्त में हाथ में जल लेकर 
सूर्य का स्वागत करना 
तुम्हें समाधान मिलेगा 
और हर समाधान के साथ ढेरों कहानियाँ 
जिन्हें तुम सुनाना

रविवार, 5 नवंबर 2017

कुनू जुनू - ये है तुम्हारी नानी/दादी की कहानी




आज मैं तुमदोनों को प्रकृति कवि सुमित्रानंदन पन्त से मिलवाने समय के उस बिन्दू पर ले चलती हूँ,जहाँ मुझे नहीं पता था कि वे कौन हैं ,उनकी महत्ता क्या है !
नन्हा बचपन,नन्हे पैर,नन्ही तिलस्मी उड़ान सपनों की और नन्ही-नन्ही शैतानियाँ- उम्र के इसी अबोध,मासूमियत भरे दिनों में मैं पूरे परिवार के साथ इलाहाबाद गई थी। पापा,अम्मा, हम पाँच भाई-बहन -छोटे भाई के फूल संगम में प्रवाहित करने गए थे। उम्र को मौत के मायने नहीं मालूम थे, बस इतना पता था कि वह नहीं है - फूल,संगम .... अर्थ से बहुत परे थे।
आंसुओं में डूबे दर्द के कुछ टुकड़े मेरे पापा,मेरी अम्मा ने संगम को समर्पित किया, पानी की लहरों के साथ लौटती यादों को समेटा और लौट चले वहां , जहाँ हम ठहरे थे। हाँ , संगम का पानी और अम्मा की आंखों से गिरते टप-टप आंसू याद हैं। और याद है कि हम कवि पन्त के घर गए (जो स्पेनली रोड पर था)। अम्मा उन्हें 'पिता जी' कहती थीं,कवि ने उनको अपनी पुत्री का दर्जा दिया था, और वे हमारे घर की प्रकृति में सुवासित थे, बाकी मैं अनजान थी।
उस उम्र में भी सौंदर्य और विनम्रता का एक आकर्षण था, शायद इसलिए कि वह हमारे घर की परम्परा में था।
जब हम उनके घर पहुंचे, माथे पर लट गिराए जो व्यक्ति निकला.....उनके बाल मुझे बहुत अच्छे लगे,बिल्कुल रेशम की तरह - मैं बार-बार उनकी कुर्सी के पीछे जाती.....एक बार बाल को छू लेने की ख्वाहिश थी। पर जब भी पीछे जाती, वे मुड़कर हँसते..... और इस तरह मेरी हसरत दिल में ही रह गई।
उनके साथ उनकी बहन 'शांता जोशी' थीं, जो हमारे लिए कुछ बनाने में व्यस्त थीं । मेरे लिए मीठा,नमकीन का लोभ था, सो उनके इर्द-गिर्द मंडराती मैंने न जाने कितनी छोटी-छोटी बेकार की कवितायें उन्हें सुनाईं.....कितना सुनीं,कितनी उबन हुई- पता नहीं, बस रिकॉर्ड-प्लेयर की तरह तुम्हारी नानी/दादी बजती गई ।
दीदी,भैया  ने एक जुगलबंदी बनाई थी -
'सुमित्रानंदन पन्त
जिनके खाने का न अंत', .... मैं फख्र से यह भी सुनानेवाली ही थी कि दीदी,भैया ने आँख दिखाया और मैं बड़ी मायूसी लिए चुप हो गई !
फिर पन्त जी ने अपनी कवितायें गाकर सुनाईं, माँ और दीदी ने भी सुनाया..... मैं कब पीछे रहती -सुनाया,'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए....'
उसके बाद मैंने सौन्दर्य प्रिय कवि के समक्ष अपने जिज्ञासु प्रश्न रखे - ' नाना जी, पापा हैं तो अम्मा हैं, मामा हैं तो मामी , दादा हैं तो दादी......फिर यहाँ नानी कहाँ हैं?'प्रकृति कवि किसी शून्य में डूब गए, अम्मा, पापा सकपकाए , मैं निडर उत्तर की प्रतीक्षा में थी (बचपन में माँ,पिता की उपस्थिति में किसी से डर भी नहीं लगता न )। कुछ देर की खामोशी के बाद कवि ने कहा ,'बेटे, तुमने तो मुझे निरुत्तर कर दिया,इस प्रश्न का जवाब मेरे पास नहीं....' क्या था इन बातों का अर्थ, इससे अनजान मैं अति प्रसन्न थी कि मैंने उनको निरुत्तर कर दिया, यानि हरा दिया।
इसके बाद सुकुमार कवि ने सबका पूरा नाम पूछा - रेणु प्रभा, मंजु प्रभा , नीलम प्रभा , अजय कुमार और मिन्नी !
सबके नाम कुछ पंक्तियाँ लिखते वे रुक गए, सवाल किया - 'मिन्नी? कोई प्रभा नहीं ' - और आँखें बंदकर कुछ सोचने लगे और अचानक कहा - 'कहिये रश्मि प्रभा , क्या हाल है?' अम्मा ,पापा के चेहरे की चमक से अनजान मैंने इतराते हुए कहा -'छिः ! मुझे नहीं रखना ये नाम ,बहुत ख़राब है। एक लडकी-जिसकी नाक बहती है,उसका नाम भी रश्मि है................' पापा ने डांटा -'चुप रहो', पर कवि पन्त ने बड़ी सहजता से कहा, 'कोई बात नहीं , दूसरा नाम रख देता हूँ' - तब मेरे पापा ने कहा - 'अरे इसे क्या मालूम, इसने क्या पाया है....जब बड़ी होगी तब जानेगी और समझेगी ।'
जैसे-जैसे समय गुजरता गया , वह पल और नाम मुझे एक पहचान देते गए ।
वह डायरी अम्मा ने संभालकर रखा है , जिसमें उन्होंने सबके नाम कुछ लिखा था। मेरे नाम के आगे ये पंक्तियाँ थीं,
' अपने उर की सौरभ से
जग का आँगन भर देना'...........
कवि का यह आशीर्वाद मेरी ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा बन गया......इस नाम के साथ उन्होंने मुझे पूरी प्रकृति में व्याप्त कर दिया ।