शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

- मैथिलीशरण गुप्त की कलम से राहुल और माँ यशोधरा की बातें पढ़ो





माँ और बच्चे के बीच गर्भनाल का रिश्ता होता है, जहाँ माँ की प्रत्येक कहानी में, बात में एक अलग सा विस्तार होता है।  हम जहाँ नहीं थे, वहाँ भी एक कल्पना हमें बहुत कुछ दे जाती  है  ... 
               मैथिलीशरण गुप्त जी की कलम राहुल-यशोधरा बनकर आई है, पढ़ो-जानो। .. 


"माँ कह एक कहानी।"
"बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

"वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

"चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

"हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"
"सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?"
कह दो निर्भय जय हो जिसका, सुन लूँ तेरी वाणी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।

कोई निरपराध को मारे तो क्यों न अन्य उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"


बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

कुनू जुनू - घर कभी रुपयों से नहीं बनता




वो जो घर की दीवारों पर धब्बे नज़र आते हैं
आता है नज़र
थोड़ा दरका हुआ पलस्तर
सीमेंटेड आँगन में कुछ टूटा फूटा हिस्सा
वह यादों का एल्बम होता है
अनगिनत पृष्ठ
अनगिनत कैद लम्हे
तस्वीरें थोड़ी मुड़ी तुड़ी  ...
इतनी मीठी कहानी कोई और नहीं होती
हो ही नहीं सकती  ...

यही कहानियाँ नानी/दादी की ज़ुबानी सुनी जाती हैं
अनुभवों से जो शिक्षा मिले
वही जीवन का निष्कर्षित मन्त्र होता है
जो खेल खेल में गिरकर उठना सिखाता है
दर्द को भी गीत बना जाता है !

घर कभी रुपयों से नहीं बनता
घर अपनों के एहसास से बनता है
परियों सी होती है बुआ और मौसी
रानी सी माँ
राजा से पापा
अलादीन का चिराग होते हैं मामा/चाचा
रिश्तों का जादू न हो
तो महल भी होता है वीराना
!

ज़िन्दगी तभी मीठी होती है
जब मिस्री सी मिठास मन में होती है
और मिस्री के टुकड़े नानी/दादी देगी न :)

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

कुनू जुनू - वादा करो वक़्त लौटाकर लाओगी




वक़्त भागता था कभी सीटियाँ बजाते
उसकी धुन पर हम भी निकल पड़ते थे
यहाँ से वहाँ तक फैले मैदान में
आम, अमरुद के पेड़ पर
विद्यालय प्रांगण में  ...
ये वक़्त !
अब सीटियाँ बजाना भूल गया है
शोर सा करता है
धड़कनें बढ़ जाती हैं
अज्ञात की आशंका में
बंद हो जाते है खिड़की, दरवाज़े
बगलवाले घर की घण्टी कोई नहीं बजाता
सीढ़ियों से उतरने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं
लिफ्ट में कोई किसी पर नज़र नहीं डालता
बच्चों को भी इतनी सारी हिदायतें हैं
कि दोस्ती करने को कुलबुलाता मन
रुका रहता है
वक़्त धीरे से सीटी बजा भी दे
तो भी
सब अपनी अपनी मंज़िल पर पहुँचकर
बंद कर देते हैं दरवाज़े
!!!
खुले दरवाज़े किसी के नहीं होते
वक़्त इतना शोर करता है
कि किसी पर विश्वास नहीं रहा
लुकाछुप्पी खेलने की अब जगह ही कहाँ है
गमले में लगे पौधे से पेड़
चढ़ने की इज़ाज़त कैसे देंगे
पहुँच के भीतर
सबकुछ पहुँच के बाहर हो गया है  ...

काश !
वो सीटी बजानेवाला पल लौट आता !!!

(वादा करो तुमदोनों वह वक़्त लौटाकर लाओगी)

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

कुनु जुनू इसे कभी मत भूलना




तुम दोनों जब समझदार हो जाओ तब इसे पढ़ना - कुछ मन बहलाने के लिए, कुछ जीवन को सीखने के लिए। 
ये हैं अम्मू नानी/ दादी की अम्मा की सीख, इसे कभी मत भूलना।  जीवन के हर मोड़ पर इसकी सार्थकता होगी 

मन का रथ !


मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
आंधी  से तूफाँ से हाथ मिलाना  होगा
अंगारों पे चलके मुझे दिखाना होगा 
 लोग तभी जानेंगे हस्ती क्या होती है 
अंगूरी प्याले की  मस्ती  क्या होती है 
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वह केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..