गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

कुनू जुनू ..... गुटुक !




ये बनाया मैंने बांहों का घेरा
दुआओं का घेरा
खिलखिलाती नदियों की कलकल का घेरा
मींच ली हैं मैंने अपनी आँखें
कुछ नहीं दिख रहा
कौन आया कौन आया
अले ये तो मेली ज़िन्दगी है ...

ये है रोटी , ये है दाल
ये है सब्जी और मुर्गे की टांग
साथ में मस्त गाजर का हलवा
बन गया कौर
मींच ली हैं आँखें
कौन खाया कौन खाया
बोलो बोलो

नहीं आई हँसी
तो करते हैं अट्टा पट्टा
हाथ बढ़ाओ .....
ये रही गुदगुदी
कौन हँसा कौन हँसा
बोलो बोलो बोलो बोलो
जल्दी बोलो
मींच ली हैं आँखें मैंने
गले लग जाओ मेरे
और ये कौर हुआ - गुटुक !

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

कुनू जुनू ने सूरज से कहा




सूरज चाचू 
तुम्हें ठंड नहीं लगती क्या ?
इतना घना कुहरा 
कोहरे में तुम 
कोई गर्म कपड़ा 
क्यूँ नहीं पहन लेते ?
तुम्हारी मम्मा 
तुम्हें नहीं समझाती क्या ?
कम से कम इन कोहरों को डाँटे 
"अरे, भागो यहाँ से" 
... 
बैठो न सूरज चाचू हमारे पास 
दूध 
एज घूँट चाय 
एक टुकड़ा रोटी का देंगे हम 
अपने खिलौनों से खेलने देंगे हम 
अपना कम्बल भी उढ़ायेंगे 
... 
एक बात बताओ 
तुम कभी थकते नहीं क्या ?
निकलते हो,
अस्त होते हो 
फिर कहीं और निकल जाते हो 
आओ,
ज़रा सा आराम कर लो 
हमारे संग हाथ मिलाओ 
छुप्पाछुप्पी खेलो 
हमारे हिस्से की लोरी सुनके 
गहरी नींद सो जाओ  ... 

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

सीधी सी बात है कुनू जुनू




आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता
भले ही वह बेमन से दिया गया हो
लेकिन वह ले लेता है ॐ की आकृति
जीवन के हर कदम पर
करता है शंखनाद
और अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है  ...
इसलिए चरण छूना
हाथ जोड़ना
अपने संस्कारों की तिजोरी में रखना
सामनेवाला क्या है
इससे अपने को प्रभावित मत करना  ...

पूर्व से उदित सूर्य
पश्चिम में अस्त होता है
कोई नमन करे
ना करे
वह अपनी परंपरा नहीं बदलता
ग्रहण हो
या बादलों का घना साया
वह अपनी प्रकृति नहीं बदलता
और इसीमें
उसकी गरिमा है
उसका अस्तित्व है  ...

हमारी प्रकृति
हमारी गरिमा
ईश्वरीय देन है
कोई कीचड़ उछाल दे
तो मन क्षुब्ध होता है
लेकिन अपना स्वभाव
बुद्धि और विवेक का काम करता है  ...

इसका अर्थ यह नहीं
कि तुम कीचड़ को सर माथे लगाओ
हाँ,
उसके मध्य से कमल लाने के लिए
तुम्हें संतुलित क़दमों से ही चलना होगा
....
सीधी सी बात है
कीचड़ तुम्हारे संतुलन से
अपना स्वभाव नहीं बदलता
फिर तुम उसकी वजह से
उसकी श्रेणी में क्यूँ आओ !
तर्क स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक है
कुतर्क अस्वस्थ मानसिकता का
तुम्हें तय करना है
तुम स्वस्थ रहना चाहते हो
या व्यर्थ की बातों में समय गँवाकर
स्वस्थ होकर भी खुद को बीमार रखना !!

क्षणांश के लिए
मन की उद्विग्नता स्वाभाविक है
पर अपने "मैं" पर
यानि अपने भीतर की अलौकिक शक्ति पर
ध्यान केंद्रित करना
कुछ समय चुप रह जाना
तुम्हें रास्तों का विकल्प देगा
तुम्हारे हाथों में सही चाभी देकर
तुम्हें सुरक्षित रखेगा।

शनिवार, 26 नवंबर 2016

चलते हुए तुम्हें खुद ब खुद सारे जवाब मिल जाएँगे ...




दोस्त बनाना 
मीठी बोली बोलना 
पर,
गहरी दोस्ती करते हुए याद रखना 
एक दोस्त मिले 
तो तुम खुशनसीब हो 
दो तो बहुत है  ... ... 
... तीसरा कभी मिल ही नहीं सकता !
ना,ना - तर्क मत करना 
कोई प्रश्न नहीं 
चलते हुए 
तुम्हें खुद ब खुद 
सारे जवाब मिल जाएँगे  ... !

बहुत सारे प्रश्नों का कोई जवाब नहीं होता 
होते हैं उनके 
अपने अनुभव 
और तभी व्यक्ति स्वीकार भी करता है 
जीवन का सत्य 
जीवन ही बताता है !

खैर, 
प्रकृति से तुम ज़रूर दोस्ती करना 
उसके पास सौन्दर्य है 
रहस्य है 
प्रतिध्वनियाँ हैं 
पर्वतों की ऊँचाई 
घाटियों का घुमाव 
नदी का अथाह जल 
खाई 
सुरंग 
भिन्न भिन्न वृक्ष 
अद्भुत लतायें 
जिज्ञासु विस्तार  ... 
... 
कौतुहल न हो 
चिड़ियों का सरगम न हो 
तो मन लक्ष्यभेद नहीं कर पाता 
और ज़रूरी है 
कि तुम आत्मसात करो 
हर व्यक्तिविशेष की खूबी 
सीखो परशुराम से 
कुछ राम से 
कुछ विभीषण से 
कुछ शबरी से 
सीता से 
यशोधरा से 
राहुल से 
बुद्ध से 
सीखो तुम भीष्म से 
विदुर से 
अर्जुन से 
कर्ण से 
दुआ है -
मिले तुम्हें संजय की दृष्टि 
तुम देख सको आगत 
जो निर्णय लेने में साथ दे 
... 
सीखने के लिए 
विष और अमृत 
दोनों के असर को समझना 
तभी 
हाँ तभी 
तुम्हें सही दोस्त मिलेगा 
 ... 

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

बड़े हो जाओ खूब बड़े हो जाओ पर थोड़ा रुको ... :)




बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको
नन्हें नन्हें फ्रॉक पहन लो अच्छी तरह :)
बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको
ये जो अबोध खिलखिलाहट है
उसे भरपूर जी लो, जीने दो :)
बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको
झां झां अच्छी तरह खेल लो :)
बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको
एक बार स्कूल जाने लगोगे
फिर ये सबक वो सबक
थोड़ा गुस्सा
थोड़ी हिदायतें  ... :)
बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको
अपनी नन्हीं सी दुनिया को
बाहों में समेट लो
एक नन्हीं सी डिबिया में संजो लो
नानी/दादी की कहानियों को
पापा,मम्मा के दुलार को
मामा मौसी बुआ के जादुई चिराग को
सिरहाने रख लो
जब कभी लगे
- कहाँ गया बचपन !
सब निकालना अपनी पिटारी से
फिर एक डायरी बनाना
सब लिखना
ताकि जब बहुत बड़े हो जाओ
तो एक दिन अपने घर की बालकनी में
उसे पढ़ते हुए
थोड़ा थोड़ा बच्चे बन जाना तुम
:)
बड़े हो जाओ
खूब बड़े हो जाओ
पर थोड़ा रुको  ... :)

रविवार, 20 नवंबर 2016

सिर्फ रट लेने से ज्ञान नहीं होता




कुछ लोग पढ़ते हैं, कुछ लोग रट लेते हैं  ... रट लेने से उसे हूबहू कॉपी पर उतार देने से नंबर तो मिल जाते हैं, लेकिन जीवन में वह काम नहीं आता। 
और रटा हुआ कुछ भी बीच से भूल गए तो समझो सबकुछ भूल गए।  जो सीख जीवन में काम न आ सके, तो यूँ ही उसे कहने से क्या फायदा ! 
चलो एक कहानी से इसे समझो - 

तोता रट

एक बार एक साधु ने अपनी कुटिया में कुछ तोते पाल रखे थे। सभी तोते को अपनी सुरक्षा के लिए एक गीत सीखा रक्खा था ।
गीत कुछ इस तरह था कि
‘शिकारी आएगा
जाल बिछाएगा
दाना डालेगा
पर हम नहीं जाएंगे’
एक दिन साधु भिक्षा मांगने के लिए पास के एक गांव में गए ।
इसी बीच एक बहेलिया ने देखा एक पेड़ पर तोते बैठे हैं उसे उन पक्षियों को देख उसे लालच हुआ उसने उन सभी तोते को पकड़ने की योजना बनाने लगा ।
तभी तोते एक साथ गाने लगे
शिकारी आएगा
जाल बिछाएगा
दाना डालेगा
पर हम नहीं जाएंगे । बहेलिया ने जब यह सुना तो आश्चर्यचकित रह गया
उसने इतने समझदार तोते कहीं देखें ही नहीं थे,
उसने सोचा इन्हे पकड़ना असंभव हैं ये तो प्रशिक्षित तोते लगते हैं ।
बहेलिया को नींद आ रही थी उसने उसी पेड़ के नीचे अपनी जाल में कुछ अमरूद के टुकड़े डाल कर सो गया,
सोचा कि संभवतः कोई लालची और बुद्धू तोता फंस जाएं ।
कुछ समय बाद जब वह सोकर उठा तो देखा कि सारे तोते एक साथ गा रहे थे
शिकारी आएगा
जाल बिछाएगा
दाना डालेगा
पर हम नहीं जाएंगे ।
पर वह यह गीत जाल के अंदर गा रहे थे।
शिकारी उन सब बुद्धू तोते की हाल देख हंस पड़ा और सब को पकड़ कर ले गया ।

किसी भी ज्ञान को रटने की बजाय उसे समझने पर बल देना चाहिए ।
क्योंकि रटा हुआ ज्ञान किसी काम का नहीं होता

तो तुमदोनों हमेशा बुद्धि और विवेक से काम लेना, जो कुछ माँ-पापा सिखायें ,उसे सीखना - रटना मत और बुद्धि-विवेक से तू तू मैं मैं मत करना 

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

कुनू जुनू खेल की "ऊँगली" और पढाई का "हाथ" थाम लेना





मेरी कुनू ,मेरी जुनू 

ज़िन्दगी में बहुत लोगों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है, और सीखने के लिए, उसे मन में उतारने के लिए उम्र की कोई बंदिश नहीं होती।  हर उम्र में एक नया दृष्टिकोण मिलता है, बहुत सी बातें - जो शुरू में मज़ाक लगती हैं, उनकी गंभीरता समय के साथ समझ में आती है। 
कुछ ऐसा ही लिखा है अर्चना आंटी ने  ... ब्लॉग से इनको जाना, फिर फेसबुक ने बहुत कुछ जानने का मौका दिया, और एक दिन ये आंटी मेरे पास आईं,  ... समझ लो, मेरी छोटी बहन हैं।  
इनकी बहुत सी कहानी बाद में, आज तो उनका यह लिखा संजो रही हूँ, ताकि तुम जब पढ़ो तो जानो कि समय एक सा नहीं होता  ... 



"खेल -खेल में" 

आओ तुम्हें बताऊं बात एक आज,
खोलूं अपने दिल का एक राज,
मेरा मन कभी पढाई मे नहीं लगता था,
हमेशा कक्षा की खिडकी से बाहर ही भागता था,
बहुत डरती थी मै पढाई करने से,
और हमेशा बचती थी कक्षा में खडे होकर पढने से,
मुझे हमेशा खेल बहुत भाए है,
लगता था जैसे ये मेरी ही माँ के "जाए" है,
कसकर हमेशा खेलों का पकडा था हाथ,
फ़िर भी न जाने कब? किस मेले मे, छूट गया था साथ,
कभी जब अपने बारे में सोचती हूं ,तो पाती हूं,
कि घर में सबसे बडी हूं, और सबसे ज्यादा पढी हूं,
शायद खेल और पढाई की दोस्ती थी,
और खेल ने ही छुपकर पढाई की उंगली पकड रखी थी,
पढाई मुझे बिना बताए मेरे साथ चलती रही,
और खेल को सामने देख मै खुश होती रही,
मै नहीं जानती थी कि जिन्दगी में कभी ऐसा मोड आएगा,
जहाँ पढाई आगे और खेल पीछे हो जाएगा,
पर बच्चों- हमेशा से ऐसा ही होता आया है,
पढाई ने हमेशा ही खेल को हराया है,
मगर अब समय रहते तुम इस बात को जान लेना,
खेल की "ऊँगली" और पढाई का "हाथ" थाम लेना,
तुम्हारे अन्दर भी बहुत "कुछ" है,
जो तुमने अब तक नहीं पाया है,
शायद ईश्वर ने उसे बहुत ही अन्दर छुपाया है,
तुम्हें यहाँ से आगे जाकर भी उसे ढूंढना है,
बहुत दूर तक चलना है,
दादा की लाठी लेना है,
दादी का हाथ पकड़ना है,
पिता के कंधे का बोझ हल्का करना है,
माँ के सपनों को पूरा करना है,
जीवन की नदिया मे बहकर सागर से जाकर मिलना है,
दुनियाँ के आसमान में रोशनी बनकर चमकना है,
अपना नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों पर लिखना है,
यहाँ तक तो सबका साथ था--
अब तुम्हें अकेले ही आगे बढ़ना है,
चाँद पर तो सब जा चुके ,
तुम्हें सूरज के घोडों पर चढना है।

रविवार, 6 नवंबर 2016

कुनू जुनू - आज मैं तुम्हें नचिकेता की कहानी सुनाती हूँ :) -




जीवन कहानियों से भरी
खुद ही एक कहानी है
...
कितने जिज्ञासु सवाल होते हैं
जिनके अलग अलग जवाब होते हैं !

पहले ज़िन्दगी रोती है
फिर तुतलाती है
पलटती है
घुटनों पर चलने की कोशिश करती है
दूध के दाँत लिए
मोहक हँसी हँसती है
फिर बहुत कुछ सुनते
देखते
सीखते
ज़िन्दगी सिखाने लगती है  ...

किताबें हर तरह की होती हैं
चयन अपना होता है
फिर भी,
अभिभावक चयन की नींव डालते हैं
मैं नानी/दादी
यह नींव दे रही हूँ
सवालों के जवाब जड़ों से ही मिलते हैं

एक जड़ मैं भी हूँ
आज मैं तुम्हें नचिकेता की कहानी सुनाती हूँ :) -



आश्रम का वातावरण हवन की सुगन्ध से भरा हुआ था. दूर – दूर के ऋषि महात्माओं को यज्ञ में बुलाया गया था. चारो और वेदमंत्रोच्चारण की ध्वनि गूंज रही थी.

बहुत पुरानी बात है जब हमारे यहाँ वेदों का पठन – पाठन होता था. ऋषि आश्रमों में रहकर शिष्यों को वेदों का ज्ञान देते थे. उन दिनों एक महर्षि थे वाजश्रवा. वे महान विद्वान और चरित्रवान थे. नचिकेता उनके पुत्र थे. एक बार महर्षि वाजश्रवा ने ‘विश्वजीत’ यज्ञ किया और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि इस यज्ञ में मैं अपनी सारी संपत्ति दान कर दूंगा.

कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा. यज्ञ की समाप्ति पर महर्षि ने अपनी सारी गायों को यज्ञ करने वालो को दक्षिणा में दे दिया. दान देकर महर्षि बहुत संतुष्ट हुए.

बालक नचिकेता के मन में गायों को दान में देना अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे गायें बूढी और दुर्बल थी. ऐसी गायों को दान में देने से कोई लाभ नहीं होगा. उसने सोचा पिताजी जरुर भूल कर रहे है. पुत्र होने के नाते मुझे इस भूल के बारे में बताना चाहिए.

नचिकेता पिता के पास गया और बोला, ” पिताजी आपने जीन वृद्ध और दुर्बल गायों को दान में दिया है उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी कि ये दूसरे को दी जाएँ.

महर्षि बोले, ” मैंने प्रतिज्ञा की थी कि, मैं अपनी साड़ी सम्पत्ति दान कर दूंगा, गायें भी तो मेरी सम्पत्ति थी. अगर मैं दान न करता तो मेरा यज्ञ अधूरा रह जाता.

नचिकेता ने कहा, ” मेरे विचार से दान में वही वास्तु देनी चाहिए जो उपयोगी हो तथा दूसरो के काम आ सके फिर मैं तो आपका पुत्र हूँ बताइए आप मुझे किसे देंगे ?

महर्षि ने नचिकेता की बात का कोई उत्तर नहीं दिया परन्तु नचिकेता ने बार – बार वही प्रश्न दोहराया. महर्षि को क्रोध आ गया. वे झल्लाकर बोले, ” जा, मैं तुझे यमराज को देता हूँ.

नचिकेता आज्ञाकारी बालक था. उसने निश्चय किया कि मुझे यमराज के पास जाकर अपने पिता के वचन को सत्य करना है. अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा तो भविष्य में मेरे पिता जी का सम्मान नहीं होगा.

नचिकेता ने अपने पिता से कहा, ” मैं यमराज के पास जा रहा हूँ. अनुमति दीजिये. महर्षि असमंजस में पड़ गये. काफी सोच – विचार के बाद उन्होंने ह्रदय को कठोर करके उसे यमराज के पास जाने की अनुमति दी.

नचिकेता यमलोक पहुँच गया परन्तु यमराज वहां नहीं थे. यमराज के दूतों ने देखा कि नचिकेता का जीवनकाल अभी पूरा नहीं हुआ है. इसलिए उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन नचिकेता तीनो दिन तक यमलोक के द्वार पर बैठा रहा.

चौथे दिन जब यमराज ने बालक नचिकेता को देखा तो उन्होंने उसका परिचय पूछा. नचिकेता ने निर्भीक होकर विनम्रता से अपना परिचय दिया और यह भी बताया  कि वह अपने पिताजी की आज्ञा से वहां आया है |

यमराज ने सोचा कि यह पितृ भक्त बालक मेरे यहाँ अतिथि है. मैंने और मेरे दूतों ने घर आये हुए इस अतिथि का सत्कार नहीं किया. उन्होंने नचिकेता से कहा, ” हे ऋषिकुमार, तुम मेरे द्वार पर तीन दिनों तक भूखे – प्यासे पड़े रहे, मुझसे तीन वर मांग लो |

नचिकेता ने यमराज को प्रणाम करके कहा, ” अगर आप मुझे वरदान देना चाहते है तो पहला वरदान दीजिये कि मेरे वापस जाने पर मेरे पिता मुझे पहचान ले और उनका क्रोध शांत हो जाये.

यमराज ने कहा- तथास्तु, अब दूसरा वर मांगो.

नचिकेता ने सोचा पृथ्वी पर बहुत से दुःख है, दुःख दूर करने का उपाय क्या हो सकता है ? इसलिए नचिकेता ने यमराज से दूसरा वरदान माँगा-

स्वर्ग मिले किस रीति से, मुझको दो यह ज्ञान |
मानव के सुख के लिए, माँगू यह वरदान ||

यमराज ने बड़े परिश्रम से वह विद्या नचिकेता को सिखाई. पृथ्वी पर दुःख दूर करने के लिए विस्तार में नचिकेता ने ज्ञान प्राप्त किया. बुद्धिमान बालक नचिकेता ने थोड़े ही समय में सब बातें सीख ली. नचिकेता की एकाग्रता और सिद्धि देखकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने नचिकेता से तीसरा वरदान माँगने को कहा |
नचिकेता ने कहा, ” मृत्यु क्यों होती है ? मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है ? वह कहाँ जाता है ?

यह प्रश्न सुनते ही यमराज चौंक पड़े. उन्होंने कहा, ” संसार की जो चाहो वस्तु माँग लो परन्तु यह प्रश्न मत पूछो किन्तु नचिकेता ने कहा, ” आपने वरदान देने के लिए कहा, अतः आप मुझे इस रहस्य को अवश्य बतायें |

नचिकेता की दृढ़ता और लगन को देखकर यमराज को झुकना पड़ा.

उन्होंने नचिकेता को बताया की मृत्यु क्या है ? उसका असली रूप क्या है ? यह विषय कठिन है इसलिए यहाँ पर समझाया नहीं जा सकता है किन्तु कहा जा सकता है कि जिसने पाप नहीं किया, दूसरो को पीड़ा नहीं पहुँचाई, जो सच्चाई के राह पर चला उसे मृत्यु की पीड़ा नही होती. कोई कष्ट नहीं होता है.

इस प्रकार नचिकेता ने छोटी उम्र में ही अपनी पितृभक्ति, दृढ़ता और सच्चाई के बल पर ऐसे ज्ञान को प्राप्त कर लिया जो आज तक बड़े – बड़े पंडित, ज्ञानी और विद्वान् भी न जान सके |

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

कुनू जुनू चिरागी जिन्न दोस्त होता है :)




बचपन में सुना -
अलीबाबा चालीस चोर
मन करता था अलीबाबा बन जाऊँ
कहूँ पहाड़ के आगे
"खुल जा सिम सिम"
और रास्ता बन जाए
खजाना मिल जाए
....
....
कुछ आगे बढ़ी
तो नज़र में आया अलादीन का चिराग !
चाहा तहेदिल से
मिल जाये चिराग
निकल आये जिन्न
और सारे काम चुटकियों में हो जाये
… इस सुविधा में यह भी ध्यान रखा
कि जिन्न कभी खाली नहीं बैठे !

फिर ख्यालों में उतरी
सिंड्रेला की लाल परी
चमकते जूते
घोड़ागाड़ी
घेरेवाला फ्रॉक …
छड़ी का कमाल लिए
सिंड्रेला बनती रही ख्यालों में
12 न बज जाए
याद रखा …
इन सारे ख्यालों में
उम्र कोई बाधा नहीं थी
नन्हीं उम्र से आज तक
इंतज़ार किया है
अलीबाबा,अलादीन,सिंड्रेला
जिनि, ... तिलस्मी इतिहास का !
जादुई ज़िन्दगी की तलाश दिलोजान से रही
उम्मीद के तेल आज भी भरपूर हैं
जिसकी बाती आगे करके
अब पुकारती हूँ इनको
अपनी कुनू
और
अपनी जुनू के लिए :)
मोगली को बुलाती हूँ
बघीरे से दोस्ती करती हूँ
अलादीन के चिराग पर लिखती हूँ
तुमलोगों के नाम
अरे, अरे आराम से
अभी आएगा जिन्न
और तुमसे कहेगा
"कहो मेरे आका
क्या हाज़िर करूँ ?"
अच्छी तरह से सोच लो
और याद रखो,
इन जादुई कहानियों के संग
वक़्त जादू की तरह बीतता है
चिरागी जिन्न दोस्त होता है :)

शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

- मैथिलीशरण गुप्त की कलम से राहुल और माँ यशोधरा की बातें पढ़ो





माँ और बच्चे के बीच गर्भनाल का रिश्ता होता है, जहाँ माँ की प्रत्येक कहानी में, बात में एक अलग सा विस्तार होता है।  हम जहाँ नहीं थे, वहाँ भी एक कल्पना हमें बहुत कुछ दे जाती  है  ... 
               मैथिलीशरण गुप्त जी की कलम राहुल-यशोधरा बनकर आई है, पढ़ो-जानो। .. 


"माँ कह एक कहानी।"
"बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

"वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

"चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

"हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"
"सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?"
कह दो निर्भय जय हो जिसका, सुन लूँ तेरी वाणी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।

कोई निरपराध को मारे तो क्यों न अन्य उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"


बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

कुनू जुनू - घर कभी रुपयों से नहीं बनता




वो जो घर की दीवारों पर धब्बे नज़र आते हैं
आता है नज़र
थोड़ा दरका हुआ पलस्तर
सीमेंटेड आँगन में कुछ टूटा फूटा हिस्सा
वह यादों का एल्बम होता है
अनगिनत पृष्ठ
अनगिनत कैद लम्हे
तस्वीरें थोड़ी मुड़ी तुड़ी  ...
इतनी मीठी कहानी कोई और नहीं होती
हो ही नहीं सकती  ...

यही कहानियाँ नानी/दादी की ज़ुबानी सुनी जाती हैं
अनुभवों से जो शिक्षा मिले
वही जीवन का निष्कर्षित मन्त्र होता है
जो खेल खेल में गिरकर उठना सिखाता है
दर्द को भी गीत बना जाता है !

घर कभी रुपयों से नहीं बनता
घर अपनों के एहसास से बनता है
परियों सी होती है बुआ और मौसी
रानी सी माँ
राजा से पापा
अलादीन का चिराग होते हैं मामा/चाचा
रिश्तों का जादू न हो
तो महल भी होता है वीराना
!

ज़िन्दगी तभी मीठी होती है
जब मिस्री सी मिठास मन में होती है
और मिस्री के टुकड़े नानी/दादी देगी न :)

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

कुनू जुनू - वादा करो वक़्त लौटाकर लाओगी




वक़्त भागता था कभी सीटियाँ बजाते
उसकी धुन पर हम भी निकल पड़ते थे
यहाँ से वहाँ तक फैले मैदान में
आम, अमरुद के पेड़ पर
विद्यालय प्रांगण में  ...
ये वक़्त !
अब सीटियाँ बजाना भूल गया है
शोर सा करता है
धड़कनें बढ़ जाती हैं
अज्ञात की आशंका में
बंद हो जाते है खिड़की, दरवाज़े
बगलवाले घर की घण्टी कोई नहीं बजाता
सीढ़ियों से उतरने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं
लिफ्ट में कोई किसी पर नज़र नहीं डालता
बच्चों को भी इतनी सारी हिदायतें हैं
कि दोस्ती करने को कुलबुलाता मन
रुका रहता है
वक़्त धीरे से सीटी बजा भी दे
तो भी
सब अपनी अपनी मंज़िल पर पहुँचकर
बंद कर देते हैं दरवाज़े
!!!
खुले दरवाज़े किसी के नहीं होते
वक़्त इतना शोर करता है
कि किसी पर विश्वास नहीं रहा
लुकाछुप्पी खेलने की अब जगह ही कहाँ है
गमले में लगे पौधे से पेड़
चढ़ने की इज़ाज़त कैसे देंगे
पहुँच के भीतर
सबकुछ पहुँच के बाहर हो गया है  ...

काश !
वो सीटी बजानेवाला पल लौट आता !!!

(वादा करो तुमदोनों वह वक़्त लौटाकर लाओगी)

सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

कुनु जुनू इसे कभी मत भूलना




तुम दोनों जब समझदार हो जाओ तब इसे पढ़ना - कुछ मन बहलाने के लिए, कुछ जीवन को सीखने के लिए। 
ये हैं अम्मू नानी/ दादी की अम्मा की सीख, इसे कभी मत भूलना।  जीवन के हर मोड़ पर इसकी सार्थकता होगी 

मन का रथ !


मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
आंधी  से तूफाँ से हाथ मिलाना  होगा
अंगारों पे चलके मुझे दिखाना होगा 
 लोग तभी जानेंगे हस्ती क्या होती है 
अंगूरी प्याले की  मस्ती  क्या होती है 
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वह केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

सोना हिरनी महादेवी वर्मा




सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिता ने लिखा है :

'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।

'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी हूँगी, क्योंकि आप जानती हैं, मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भली भाँति देखभाल हो सकेगी।'

कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया कि अब हिरन नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।

सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्तु वह तब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग के रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा-सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती थी तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी। उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर आँखों में कौंध जाती थी।

सब उसके सरल शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए।

परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य निष्ठुरता गढ़ती है। वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की।

निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अत: उनकी स्थिति में परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता। परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवनकथा का तत्व है।

जिन्होंने हरीतिमा में लहराते हुए मैदान पर छलाँगें भरते हुए हिरनों के झुंड को देखा होगा, वही उस अद्भुत, गतिशील सौन्दर्य की कल्पना कर सकता है। मानो तरल मरकत के समुद्र में सुनहले फेनवाली लहरों का उद्वेलन हो। परन्तु जीवन के इस चल सौन्दर्य के प्रति शिकारी का आकर्षण नहीं रहता।

मैं प्राय: सोचती हूँ कि मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊर्जा को निष्क्रिय और जड़ बनाने के कार्य को मनोरंजन कैसे कहता है।

मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपवित्र भी मानता है। उसके प्रियतम आत्मीय जन का शव भी उसके निकट अपवित्र, अस्पृश्य तथा भयजनक हो उठता है। जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती।

आकाश में रंगबिरंगे फूलों की घटाओं के समान उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दवादन (आर्केस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुन्दर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गई है, किसी के पीले सुन्दर पंजे टेढ़े हो गए हैं और किसी के इन्द्रधनुषी पंख बिखर गए हैं। क्षतविक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु गातों में न अब संगीत है; न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारनेवाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।

पक्षिजगत में ही नही, पशुजगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशुजगत में हिरन जैसा निरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति और मृत्यु के प्रति इतना मोह और इतना आकर्षण क्यों?

बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण अपने अरण्य-परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।

प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ मृग समूह शिकारियों की आहट से चौंककर भागा, तब सोना की माँ सद्य:प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य:जात मृगशिशु तो भाग नहीं सकता था, अत: मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।

पता नहीं, दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपटे हुए शावक को जीवित उठा लाए। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला-पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।

सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।

उसका मुख इतना छोटा-सा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आँखों से उसे ऐसे देखने लगती, मानो वह कोई सजीव मित्र हो।

उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाँ गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा होते ही वह मेरे कमरे में पलंग के पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही बाहर निकलती।

उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई, जिसके बिना उनका किसी काम में मन नहीं लगता था।

दूध पीकर और भीगे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्तुलित कर चौकड़ी भरती। फिर वह छात्रावास पहुँचती और प्रत्येक कमरे का भीतर, बाहर निरीक्षण करती। सवेरे छात्रावास में विचित्र-सी क्रियाशीलता रहती है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धोती है, कोई बालों में कंघी करती है, कोई साड़ी बदलती है, कोई अपनी मेज की सफाई करती है, कोई स्नान करके भीगे कपड़े सूखने के लिए फैलाती है और कोई पूजा करती है। सोना के पहुँच जाने पर इस विविध कर्म-संकुलता में एक नया काम और जुड़ जाता था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका लगा देती, कोई गले में रिबन बाँध देती और कोई पूजा के बताशे खिला देती।

मेस में उसके पहुँचते ही छात्राएँ ही नहीं, नौकर-चाकर तक दौड़ आते और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिलाने को उतावले रहते, परन्तु उसे बिस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदार्थ पसन्द थे।

छात्रावास का जागरण और जलपान अध्याय समाप्त होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चरती और कभी उस पर लोटती रहती। मेरे भोजन का समय वह किस प्रकार जान लेती थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्तु वह ठीक उसी समय भीतर आ जाती और तब तक मुझसे सटी खड़ी रहती जब तक मेरा खाना समाप्त न हो जाता। कुछ चावल, रोटी आदि उसका भी प्राप्य रहता था, परन्तु उसे कच्ची सब्जी ही अधिक भाती थी।

घंटी बजते ही वह फिर प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती और उसके समाप्त होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीतर-बाहर चक्कर लगाना आरम्भ करती।

उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छ्लाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। सरकस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती।

मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्लाँग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्राय: देखनेवालों को भय होता था कि उसके पैरों से मेरे सिर पर चोट न लग जावे, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती थी और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।

भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती। डाँटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों में ऐसी अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती।

कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी-मृग-शावक आदि को इतना महत्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है।

पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बेझिल नहीं बनाता। यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा।

सम्भवत: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर किए गए आघातों और सार्थक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भाषाहीन जीवों की स्नेह तरल दृष्टि का चन्दन लेप लगाकर स्वस्थ और आश्वस्त होना चाहता है।

सरस्वती वाणी से ध्वनित-प्रतिध्वनित कण्व के आश्रम में ऋषियों, ऋषि-पत्नियों, ऋषि-कुमार-कुमारिकाओं के साथ मूक अज्ञान मृगों की स्थिति भी अनिवार्य है। मन्त्रपूत कुटियों के द्वार को नीहारकण चाहने वाले मृग रुँध लेते हैं। विदा लेती हुई शकुन्तला का गुरुजनों के उपदेश-आशीर्वाद से बेझिल अंचल, उसका अपत्यवत पालित मृगछौना थाम लेता है।

यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंडगुदीनां

तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।

श्यामाकमुष्टि परिवर्धिंतको जहाति

सो यं न पुत्रकृतक: पदवीं मृगस्ते॥

- अभिज्ञानशाकुन्तलम्

शकुन्तला के प्रश्न करने पर कि कौन मेरा अंचल खींच रहा है, कण्व कहते है :

कुश के काँटे से जिसका मुख छिद जाने पर तू उसे अच्छा करने के लिए हिंगोट का तेल लगाती थी, जिसे तूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पाला है, जो तेरे निकट पुत्रवत् है, वही तेरा मृग तुझे रोक रहा है।

साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पर्शिता में भी मृगों का विशेष योगदान रहता है।

पशु मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया।

अनेक विद्यार्थिनियों की भारी-भरकम गुरूजी से सोना को क्या लेना-देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी, जिन्होंने यत्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी।

यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।

कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्वामी की स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है।

पर हिरन यह अन्तर नहीं जानता, अत: उसका अपने पालनेवाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जावे तो वह अपनी चकित आँखों में और अधिक विस्मय भरकर पालनेवाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा - मानो पूछता हो, क्या यह उचित है? वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति जताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।

मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते-बिल्ली उस पर उछलते-कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते, तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते।

वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण शावक से हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी। परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि में मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जल कोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी, मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।

सम्भवत: अब उसमें वन तथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जागने लगा था। प्राय: सूने मैदान में वह गर्दन ऊँची करके किसी की आहट की प्रतीक्षा में खड़ी रहती। वासन्ती हवा बहने पर यह मूक प्रतीक्षा और अधिक मार्मिक हो उठती। शैशव के साथियों और उनकी उछ्ल-कूद से अब उसका पहले जैसा मनोरंजन नहीं होता था, अत: उसकी प्रतीक्षा के क्षण अधिक होते जाते थे।

इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसे इतने लघु जीवों से घिरा देख कर उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गई।

एक दिन देखा, फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिन्त लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा, हेमन्त, वसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी, परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।

सम्भवत: वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी। पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर के आरपार चौकड़ी भरती रही। पर कुछ दिनों के उपरान्त जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ गया, तब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रतीक्षा की स्तब्ध घड़ियाँ फिर लौट आईं।

उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कार्यक्रम बना। प्राय: मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास कम करती हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप (नौकर) आदि तो साथ जाने वाले थे ही, पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चिय किया, क्योंकि वह मेरे बिना रह नहीं सकती थी।

छात्रावास बन्द था, अत: सोना के नित्य नैमित्तिक कार्य-कलाप भी बन्द हो गए थे। मेरी उपस्थिति का भी अभाव था, अत: उसके आनन्दोल्लास के लिए भी अवकाश कम था।

हेमन्त-वसन्त मेरी यात्रा और तज्जनित अनुपस्थिति से परिचित हो चुके थे। होल्डाल बिछाकर उसमें बिस्तर रखते ही वे दौड़कर उस पर लेट जाते और भौंकने तथा क्रन्दन की ध्वनियों के सम्मिलित स्वर में मुझे मानो उपालम्भ देने लगते। यदि उन्हें बाँध न रखा जाता तो वे कार में घुसकर बैठ जाते या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन तक जा पहुँचते। परन्तु जब मैं चली जाती, तब वे उदास भाव से मेरे लौटने की प्रतीक्षा करने लगते।

सोना की सहज चेतना में मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था, नप्रत्यावर्तन का; इसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।

पैदल जाने-आने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। 2 जुलाई को लौटकर जब मैं बँगले के द्वार पर आ खड़ी हुई, तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।

गोधूली कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्त-वसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों में मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यों वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छ्लाँग नहीं लगाती? सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोंछने लगा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने लगे। वे लोग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।

ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाती थी। इतनी बड़ी हिरनी को पालनेवाले तो कम थे, परन्तु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।

एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूलकर बहुत ऊचाँई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।

सब उस सुनहले रेशम की गठरी के शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आए और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ।

सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन ही पालना पड़ रहा है।

शनिवार, 20 अगस्त 2016

कुनु जुनू




तुम दोनों जब समझदार हो जाओ तब इसे पढ़ना - कुछ मन बहलाने के लिए, कुछ जीवन को सीखने के लिए। 
ये हैं अम्मू नानी/ दादी की अम्मा की सीख, इसे कभी मत भूलना।  जीवन के हर मोड़ पर इसकी सार्थकता होगी 

मन का रथ !


मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
आंधी  से तूफाँ से हाथ मिलाना  होगा
अंगारों पे चलके मुझे दिखाना होगा 
 लोग तभी जानेंगे हस्ती क्या होती है 
अंगूरी प्याले की  मस्ती  क्या होती है 
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वह केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

बिल्कुल कुनू जुनू जैसे ...



एक था राजा, उनकी थी एक बहुत प्यारी रानी
उनके थे प्यारे प्यारे बच्चे 
बिल्कुल कुनू जुनू जैसे  ... 
उनकी ज़िन्दगी का महत्व्पूर्ण सबक था -

Early to bed and early to rise makes a man healthy, wealthy and wise

उनको रास्ते में पूसी बिल्ली मिल जाती तो वे पूछते 
"Pussycat pussycat, where have you been?"
"I've been up to London to visit the Queen."
"Pussycat pussycat, what did you there?"
"I frightened a little mouse under her chair"
"MEOWW!"

सुबह-शाम वे प्रार्थना करते और कहते ,

Praise Him!
Praise Him in the morning,
Praise Him in the noontime.
Praise Him!
Praise Him!
Praise Him when the sun goes down!
  2. Love Him!
 Love Him!
Love Him in the morning,
Love Him in the noontime.
Love Him!
Love Him!
Love Him when the sun goes down!
  3. Serve Him!
 Serve Him!
Serve Him in the morning,
Serve Him in the noontime.
Serve Him!
Serve Him!
Serve Him when the sun goes down!