वक़्त भागता था कभी सीटियाँ बजाते
उसकी धुन पर हम भी निकल पड़ते थे
यहाँ से वहाँ तक फैले मैदान में
आम, अमरुद के पेड़ पर
विद्यालय प्रांगण में ...
ये वक़्त !
अब सीटियाँ बजाना भूल गया है
शोर सा करता है
धड़कनें बढ़ जाती हैं
अज्ञात की आशंका में
बंद हो जाते है खिड़की, दरवाज़े
बगलवाले घर की घण्टी कोई नहीं बजाता
सीढ़ियों से उतरने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं
लिफ्ट में कोई किसी पर नज़र नहीं डालता
बच्चों को भी इतनी सारी हिदायतें हैं
कि दोस्ती करने को कुलबुलाता मन
रुका रहता है
वक़्त धीरे से सीटी बजा भी दे
तो भी
सब अपनी अपनी मंज़िल पर पहुँचकर
बंद कर देते हैं दरवाज़े
!!!
खुले दरवाज़े किसी के नहीं होते
वक़्त इतना शोर करता है
कि किसी पर विश्वास नहीं रहा
लुकाछुप्पी खेलने की अब जगह ही कहाँ है
गमले में लगे पौधे से पेड़
चढ़ने की इज़ाज़त कैसे देंगे
पहुँच के भीतर
सबकुछ पहुँच के बाहर हो गया है ...
काश !
वो सीटी बजानेवाला पल लौट आता !!!
(वादा करो तुमदोनों वह वक़्त लौटाकर लाओगी)
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